Natasha

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राजा की रानी

“मुझे तो ऐसा मालूम हुआ बेटा, कि या तो मैं सपना देख रही हूँ या सुनन्दा पर भूत सवार हो गया है। जिन जेठजी की वह देवता की तरह भक्ति करती है, उन्हीं से ऐसी बात! वे भी कुछ देर तक बिजली के मारे-से बैठे रहे; उसके बाद जल-भुनकर बोले, “जायदाद पाप की हो या पुण्य की, वह मेरी है; तुम्हारे पति-पुत्र की नहीं। तुम्हें न रुचे तो तुम लोग और कहीं जाकर रह सकते हो! पर बहू, अब तक तो मैं तुम्हें सर्वगुणमयी समझता था, ऐसा कभी नहीं सोचा था।” इतना कहकर वे थाली छोड़कर चले गये। उस दिन, फिर दिनभर किसी के मुँह से दाना-पानी नहीं गया। रोती हुई मैं देवर के पास पहुँची; बोली, “लालाजी तुम्हें तो मैंने गोद में लेकर पाला-पोसा है- उसका तुम यह बदला चुका रहे हो!” लालाजी की ऑंखों में ऑंसू डबडबा आए, बोले, “भाभी, तुम्हीं मेरी माँ हो, और भइया भी मेरे लिए पिता के समान हैं। पर तुम लोगों से भी एक बड़ी चीज है और वह है धर्म। मेरा विश्वास है कि सुनन्दा ने एक भी बात अनुचित नहीं कही है। साहजी ने सन्यास लेते समय उसे आशीर्वाद देते हुए कहा था कि बेटी, धर्म को अगर सचमुच चाहती हो, तो वही तुम्हें राह दिखाता हुआ ले जायेगा। मैं उसे इतनी-सी उमर से पहचानता हूँ भाभी, उसने हरगिज गलती नहीं की।”

“हाय री जली तकदीर! उसे भी कलमुँही ने भीतर भीतर इतना बस कर रक्खा था! अब मेरी ऑंखें खुलीं। उस दिन भादों की सँकराँत थी, आकाश में बादल उमड़ रहे थे, रह-रहकर झरझर पानी बरस रहा था, मगर अभागी ने एक रात के लिए भी मेरी बात न रक्खी, लड़के का हाथ पकड़कर घर से निकल गयी। मेरे ससुर के जमाने की एक रिआया थी जिसे मरे आज दो साल हो गये, उसी के टूटे-फूटे खण्डहर घर में एक कोठरी किसी तरह खडी थी; सियार, कुत्ते, साँप-मेंढकों के साथ जाकर, ऐसे बुरे दिनों में, वह उसी में रहने लगी। मैंने ऑंगन के बीच मिट्टी-पानी में लोटते हुए रो-रोकर कहा, “सत्यानासिन, यही अगर तेरे मन में थी, तो इस घर में तू आई ही क्यों थी? बिनू तक को ले आई, तूने क्या ससुर-कुल का नाम तक दुनिया से मिटा देने की प्रतिक्षा की है?” मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने फिर कहा, “खायगी क्या?” जवाब मिला, “ससुरजी जो तीन बीघा ब्रह्मोत्तर जमीन छोड़ गये हैं, उसमें से आधी हमारी है।” उसकी बात सुनकर मेरी तो तबीयत हुई कि सिर पटककर मर जाऊँ। मैंने कहा, “अभागी, उससे तो एक दिन की भी गुजर न होगी। तुम लोग माना, कि बिना खाये ही मर सकते हो, पर मेरा बिनू?” बोली, “एक बार कन्हाई बसाक के लड़के के बारे में तो सोच देखो जीजी। उसकी तरह एक छाक खाकर भी अगर बिनू जिन्दा रहे तो बहुत है।”

“आखिर वे चले गये। सारा घर मानो हाहाकार करके रोने लगा। उस रात को न तो घर में बत्ती जली न चूल्हा सुलगा; उन्होंने बहुत रात बीते घर लौटकर सारी रात उसी खूँटी के सहारे बैठे बिता दी। शायद बिनू मेरा न सोया होगा; शायद बच्चा मेरा भूख के मारे तड़फड़ाता होगा; सो सबेरा होते ही राखाल के हाथ गाय और बछिया भिजवा दी, पर उस राक्षसी ने लौटा दी और कहला भेजा, “बिनू को मैं दूध नहीं पिलाना चाहती, उसे बिना दूध के ही जिन्दा रहने की शिक्षा देना चाहती हूँ।”

राजलक्ष्मी के मुँह से सिर्फ एक गहरी साँस निकली। गृहिणी की उस दिन की सारी वेदना और अपमान की स्मृति ने उबलकर उसका कण्ठ रोक दिया, और मेरे हाथ का दाल-भात सूखकर बिल्कु्ल खाल-सा हो गया। कुशारीजी की खड़ाऊँ की आवाज सुनाई दी-उनका मधयाह्न-भोजन समाप्त हो गया था। मुझे आशा है कि उनके मौन-व्रत ने अक्षुण्ण अटूट रहकर उनके सात्वि‍क आहार में किसी तरह का विघ्न उपस्थित नहीं किया होगा। मगर, इधर की बात जानते थे, इस कारण ही शायद वे हमारी खोज लेने के लिए नहीं आये। गृहिणी ने ऑंखें पोंछकर, नाक और गला साफ करते हुए कहा, “उसके बाद गाँव-गाँव में, मुहल्ले-मुहल्ले में, लोगों के मुँह कितनी बदनामी और कितनी फजीहत हुई बेटा, सो तुम्हें क्या बताऊँ! उन्होंने कहा, “दो-चार दिन जाने दो तकलीफों के मारे आप ही लौट आएगी।” मैंने कहा, “उसे पहचानते नहीं हो तुम, टूट जायेगी पर नबेगी नहीं।” और हुआ भी वही। एक के बाद एक आज आठ महीने बीत गये पर उसे न नबा सके। वे मारे फिकर के छिप-छिपकर रोते-रोते सूख के लकड़ी होने लगे। बच्चा उनको प्राणों से भी बढ़कर था और देवरजी को तो लड़के से भी ज्यादा प्यार करते थे। फिर सहा न गया तो आखिर लोगों के मुँह से कहलवाया कि जुलाहे की बहू का इन्तजाम किये देता हूँ जिससे उन लोगों को तकलीफ न हो। पर उस सत्यानासिन ने जवाब दिया कि “उनका जो कुछ न्यायत: पावना है, सबका सब जब दे देंगे, तभी घर में घुसूँगी। उसका एक रत्ती-भर भी बाकी रहेगा, तो नहीं।” यानी इसके मानो यह हुए कि हम अपनी निश्चित मौत बुला लें।”

मैंने गिलास के पानी में हाथ डुबोते हुए पूछा, “अब उनकी गुजर कैसे होती है?”

कुशारी-पत्नी ने कातर होकर कहा, “इसका जवाब मुझसे न पूछो बेटा, इसका जिकर कोई छेड़ता है तो कानों में अंगुली देकर भाग जाती हूँ- ऐसा मालूम होता है जैसे दम घुट रहा हो। इन आठ महीनों में इस घर में मछली तक नहीं आई, दूध-घी की कढ़ाई तक नहीं चढ़ी। सारे ही घर पर मानो वह मर्मान्तिक अभिशाप रख के चली गयी है।” यह कहकर वे चुप हो गयीं, और बहुत देर तक हम तीनों जनें स्तब्ध होकर नीरव बैठे रहे।

घण्टे-भर बाद जब हम गाड़ी पर सवार हुए तो कुशारी-गृहिणी ने सजल कण्ठ से राजलक्ष्मी के कान में कहा, “बेटी, वे तुम्हारी ही रिआया हैं। मेरे ससुर की छोड़ी हुई जमीन पर ही उनकी गुजर होती है, वह तुम्हारे ही गाँव में है- गंगामाटी में।”

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, “अच्छा।”

गाड़ी चल देने पर उन्होंने फिर कहा, “बेटी, तुम्हारे घर से ही दिखाई देता है उनका घर। नाले के इधर जो टूटा-फूटा घर दिखाई देता है, वही।”

राजलक्ष्मी ने उसी तरह फिर गरदन हिलाकर कहा, “अच्छी बात है।”

गाड़ी धीमी चाल से आगे बढ़ने लगी। बहुत देर तक मैंने कोई बात नहीं की। राजलक्ष्मी की ओर देखा तो जान पड़ा वह अन्यमनस्क होकर कुछ सोच रही है। उसका ध्याेन भंग करते हुए मैंने कहा, “लक्ष्मी, जिसके लोभ नहीं, जो कुछ चाहता नहीं, उसे सहायता करने जाना- इससे बढ़कर संसार में और कोई विडम्बना नहीं।”

राजलक्ष्मी ने मेरे मुँह की ओर देखकर कुछ मुसकराते हुए कहा, “सो मैं जानती हूँ। तुमसे मैंने और कुछ लिया हो न लिया हो, इस बात की शिक्षा अवश्य ले ली है।”

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